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मंगलवार, 20 मार्च 2018

9वें विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया और उनके संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी

9वें विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया और उनके संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी
गौरैया एक घरेलू चिड़िया है। सामान्य तौर पर यह इंसानों के रिहायशी इलाके के आस-पास ही रहना पसंद करती है। शहरी इलाकों में गौरैया की 6 प्रजातियां पाई जाती हैं। हाउस स्पैरो (House Sparrow), स्पेनिश स्पैरो (Spanish Sparrow), सिंड स्पैरो (Sind Sparrow), डेड सी स्पैरो (Dead Sea Sparrow) और ट्री स्पैरो (Tree Sparrow)। हाउस स्पैरो के शरीर पर छोटे-छोटे पंख, पीली चोंच, पीले पैर होते हैं। इसकी लंबाई लगभग 14 से 16 सेंटीमीटर तक होती है। इनमें नर गौरैया का रंग थोड़ा अलग होता है। इसके सिर के ऊपर और नीचे का रंग भूरा होता है। गले, चोंच और आंखों के पास काला रंग होता है। इसके पैर भूरे होते हैं। 
9वें विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया और उनके संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी
अलग-अलग क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। तमिल और मलयालम में इसे 'कुरुवी', तेलुगु में 'पिच्युका', कन्नड़ में 'गुब्बाच्ची', गुजराती में 'चकली', मराठी में 'चिमानी', पंजाबी में 'चिड़ी', बांग्ला में 'चराई पाखी', उड़िया में 'घरचटिया', सिंधी में 'झिरकी', उर्दू में 'चिड़िया' और कश्मीरी में 'चेर' कहा जाता है। कहीं-कहीं पर इसे गुडरिया, गौरेलिया, खुसरा चिरई या बाम्हन चिरई के नाम से भी जानते हैं। 

आज गौरैया एक संकटग्रस्त पक्षी है। दस-बीस साल पहले तक गौरैया के झुंड सार्वजनिक स्थलों पर भी देखे जा सकते थे। लेकिन खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं, यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफी कम रह गई है। 

ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में इनकी संख्या तेजी से गिर रही है। मगर नीदरलैंड में तो इन्हें 'दुर्लभ प्रजाति' के वर्ग में रखा गया है। गौरैया को बचाने की कवायद में दिल्ली सरकार ने गौरैया को अपना राजपक्षी भी घोषित कर दिया था।

एक अध्ययन के अनुसार भारत में गौरैया की संख्या में करीब 60 फीसदी की कमी आई है। हैरानी की बात ये भी है कि यह कमी ग्रामीण और शहरी, दोनों ही क्षेत्रों में हुई है। 

गौरैया की घटती संख्या के कुछ मुख्य कारण हैं - भोजन और जल की कमी, घोंसलों के लिए उचित स्थानों की कमी तथा तेजी से कटते पेड़-पौधे

पक्षी विज्ञानियों के अनुसार गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए, जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। 

20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाने की शुरुआत साल 2010 में की गई थी। इसका उद्देश्य पूरी दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करना है। 

कभी मेरे घर भी आना गौरैया! - आबिद सुरती

कहां गई गौरैया? क्यों नहीं दिखती गौरैया? सवाल और भी हैं। सवाल सबके लिए हैं। हम पहली बार जिस पक्षी से परिचित हुए थे, वह गौरैया थी। जिस पक्षी के लिए आंगन में अनाज के दाने बिखेरे जाते थे, वह थी गौरैया। लोकगीतों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे पहले और ज्यादा मिलता था, वह थी गौरैया। लेकिन अब हम सबकी प्यारी गौरैया घर आंगन में चहकती नहीं दिखती। यह पर्यावरण का नहीं, संस्कृति का भी संकट है। 
कभी मेरे घर भी आना गौरैया!
साल 2013 की बात है। मुझे पानी बचाने के लिए स्पैरो अवॉर्ड दिया गया था। इसके बाद मैंने गौरैया के संरक्षण को लेकर काम करने वाले लोगों के साथ भी काम किया। महाराष्ट्र में जो लोग इस अभियान को लेकर काम कर रहे हैं, उनसे मैं कई बार मिला। इस दौरान कई बातें पता चलीं। मैं एक बात मानता हूं कि चींटी से लेकर हाथी तक हर जीव-जंतु जिसे प्रकृति ने बनाया है, वह धरती के संतुलन के लिए जरूरी है। गौरैया भी इन्हीं में से एक है। उसकी संख्या का धीरे-धीरे कम होते जाना, संतुलन के लिए हानिकारक ही नहीं, हमारे जीवन के लिए खतरनाक भी है। इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे रहन-सहन का बदलना। हमने अपनी जीवनशैली इस तरह बदल ली है कि उसमें गौरैया के लिए जगह ही नहीं बची है। जबकि एक समय ऐसा था जब सूरज निकलने से नहीं सुबह का पता गौरैया की चहचहाट से चलता था। आंगन में झुंड के झुंड नजर आते थे। मगर अब एक भी गौरैया का दिखना दुर्लभ हो गया है। मैं खुद यहां मुंबई में 1995 से हूं। 10-15 साल पहले हर तरफ नजर आती थी गौरैया, अब कहीं नहीं दिखती। तब में और अब में फर्क यह भी आया है कि पहले के समय में आर्किटेक्चर ही ऐसा होता था कि उसमें चिड़िया के लिए भी जगह बनाई जाती थी। झरोखे होते थे, जिनसे चिड़िया घर में आ सकती थी। आले होते थे, जिनमें वह घोंसला बना सकती थी। अब हम घर भी पश्चिम की तर्ज पर बना रहे हैं। सीमेंट के घर बनने से भी काफी नुकसान हुआ है। चारों तरफ से घिरे हुए सीमेंट के घरों की वजह से अब चिड़िया को धूल नहीं मिल रही, न खेलने के लिए न नहाने के लिए। चिड़िया रेत में सिर्फ खेलती ही नहीं हैं, नहाती भी है। इसे सैंड बाथ कहा जाता है। लेकिन आजकल के घरों में कहीं ऐसा कोई स्पेस नहीं है कि पक्षी चोंच भी मार सके। मैं कुछ समय पहले गुड़गांव गया था, तो मुझे लगा सैन फ्रांसिस्को पहुंच गया हूं। कहीं भारत की कोई छवि ही नहीं थी। हर तरफ कांच की इमारतें। अब हम कांच की इमारतें बनाएंगे, तो चिड़िया कहां से आएगी ! गौरैया की संख्या कम होने के पीछे सबसे बड़े जिम्मेदार आर्किटेक्ट हैं। साउथ मुंबई का उदाहरण दूं, तो वहां कई हेरिटेज बिल्डिंगें हैं। वहां जाता हूं, तो गौरैया दिखती हैं। लेकिन बाकी जगह शीशे के बड़े-बड़े टावर हैं, वहां चिड़िया कहीं नजर नहीं आती। हमारे देश के आर्किटेक्ट्स को यह महसूस होना चाहिए कि वे चिड़िया को मार रहे हैं और हमें चिड़िया के लिए कुछ करना चाहिए।  

मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने भी गौरैया का बहुत नुकसान किया है। मोबाइल टॉवरों का रेडिएशन भी चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। चिड़िया कई बार उसी में मर जाती हैं। उसका रेडिएशन चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। 

जीवनशैली का एक और बदलाव है, जिसने चिड़िया को हमसे दूर किया है। पहले के समय में परचून की दुकानें हुआ करती थीं। उनमें गेहूं की बोरियां होती थीं। चिड़िया आकर उनमें बैठती थी। अनाज के दाने चुगती थी। अब मॉल कल्चर आ गया है। सब कुछ पैक हो गया है। हमने उसके रहने और रुकने की जगह भी छीन ली और उसके खाने का सामान भी, तो गौरैया कहां आएगी और क्यों आएगी? हमने अब ऐसी जीवनशैली विकसित कर ली है, कि चिड़िया के आने के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। 


हम अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गौरैया के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिलता। मगर सोचने वाली बात तो है ही कि एक चहचहाहट हमारी जिंदगी से अब गायब हो चुकी है। ये बात कभी-कभी बहुत अखरती है। 

अब हमें यह देखना चाहिए कि गौरैया को बचाने के लिए क्या किया जा सकता है? कम से कम हम उसके पानी पीने का इंतजाम तो कर सकते हैं। इसके लिए खिड़की पर या बालकनी में एक मिट्टी के बर्तन में थोड़ा पानी और प्लेट में दाना रख दें। दूसरा यह भी हो सकता है कि आजकल कंदील की तरह ही चिड़िया के घर भी बाजार में बिक रहे हैं। आप अपने घर के बाहर अगर उसे लटका दें, तो चिड़िया उसमें घर बनाएगी। उसमें आप दाना भी रख दें। पानी भी रख दें। सरकारी स्तर पर भी इसे लेकर प्रयास किए जा सकते हैं। इसमें सबसे पहला काम मैपिंग का हो सकता है। हर शहर में नगरपालिका को गौरैया की मैपिंग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ताकि ये पता लगाया जा सके कि कहां और अब कितनी गौरैया हैं। कहीं कम हो रही हैं, तो वजह क्या है? ये काम बड़े पैमाने पर होना चाहिए।
विश्व गौरैया दिवस पर विशेष कभी मेरे घर भी आना गौरैया!
विश्व गौरैया दिवस पर विशेष
हम अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गौरैया के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिलता होगा। मगर सोचने वाली बात तो है ही कि एक चहचहाहट हमारी जिंदगी से अब गायब हो चुकी है। ये बात कभी-कभी बहुत अखरती है और उसका नकारात्मक असर भी होता है। 

गौरैया को बचाने के लिए एक बात पर और ध्यान देना चाहिए। हम ज्यादा से ज्यादा भारतीय पेड़-पौधे लगाएं। आजकल ज्यादा से ज्यादा डेकोरेटिव प्लांट्स और विदेशी पेड़ लगाने का चलन है। हमारी चिड़िया के लिए इन पेड़-पौधों के कोई मायने नहीं है। वह इन पर घोंसला नहीं बना पाती है। मेहंदी जैसे पेड़ गौरैया के लिए जरूरी हैं। इन पेड़ों पर ऐसे कीड़े पनपते हैं, जिन्हें गौरैया खाती है। इससे वह यहां घोंसला भी बना सकती है और उसे अपनी खुराक भी मिल जाती है। ये कीड़े चिड़िया की परवरिश के लिए बहुत जरूरी हैं। पैदा होने से लेकर चंद महीनों तक उसे इन कीड़ों की खुराक चाहिए ही चाहिए। सरकारी स्तर पर जो भी हो, एक कोशिश हमें अपने स्तर पर अपने घर से कर देनी चाहिए।  


कभी मेरे घर भी आना गौरैया! - आबिद सुरती
आबिद सुरती 
पर्यावरणविद, कार्टूनिस्ट और लेखक

साभार :- अमर उजाला, मनोरंजन, 19 मार्च, 2017 ई.

शनिवार, 24 जून 2017

तब सिर्फ किताबों में मिला करेगी गौरैया

Only Sparrows will be found in books तब सिर्फ किताबों में मिला करेगी गौरैया
साभार : Encyclopedia Britannica
मुझे आज से पांच दशक पहले का समय याद आता है, जब घर के आंगन में गौरैया बेखौफ फुदकती थी और घर वालों को उसका फुदकना, चहचहाना बहुत भाता था। उसकी चहचहाहट को घर के लिए शुभ माना जाता था, लेकिन आज उसी गौरैया के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। ऐसा लगता है कि उनके बिना घर का आंगन सूना है। भारत, यूरोप, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और कई अमेरिकी देशों में पाई जाने वाली गौरैया अब कस्बों और गांवों से भी लुप्त हो चुकी हैं। यदि कहीं कभी उसके दर्शन हो गए, तो आप अपने को खुशकिस्मत समझिए। हमारे देश में पक्षियों की तादाद जानने-बताने के लिए मुंबई में ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ (बीएनएचएस) और ‘सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी ऐंड नेचुरल हिस्ट्री’ हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इन केंद्रों के पास गौरैया से संबंधित कोई जानकारी नहीं है। सरकार के पास भी नहीं है। यूरोप में चिड़ियों-पक्षियों की संख्या की जानकारी के लिए एक पूरा तंत्र है, पर दुखद है कि गौरैया के बारे में वह भी नाकाम साबित हुआ है। यदि बीते वर्षों के कुछ निजी आकलनों पर गौर करें, तो पता चलता है कि वहां कुछेक वर्षों में गौरैया की तादाद में तकरीबन 85 प्रतिशत की कमी आई है।

इसकी विलुप्ति के पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यही है कि आदमी में प्रकृति और इसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव का अभाव और उसके रहन-सहन के तरीकों में बदलाव आया है। नए-नए तरीकों के बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से गौरैया के लिए अपने घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की ्त्रिरयों द्वारा गेहूं भिगोकर आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के ह्रास के चलते गौरैया ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टावर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण भी इनकी संख्या कम हो रही है। दरअसल, बढ़ते मोबाइल टावरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरैया के मस्तिष्क व उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं, सो अलग।

गौरैया की संख्या सिमटते जाने की एक बड़ी वजह विकसित व विकासशील देशों में बिना सीसा वाले पेट्रोल का चलन है। इनके जलने से उत्पन्न होने वाले मिथाइल नाइट्रेट नामक जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरैया को बेहद प्रिय हैं, जिन्हें वे बड़े चाव से खाती हैं। जब वे उसे खाने को ही नहीं मिलेंगे, तो वे जिएंगी कैसे? बढ़ते शहरीकरण, कंक्रीट की ऊंची इमारतों और जीवन की आपाधापी के बीच आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी भी छोड़े, जहां पक्षी अपने घोंसले बना सकें। यदि लोग बचे हुए अन्न के दानों को नालियों, सिंक में बहने से बचाएं और उनको छत की खुली जगह पर डाल दें, तो उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सकती है। पर आधुनिक भवन संरचना में दाने सीधे नालियों में गिरते हैं।

आज सत्ता में बैठे लोगों में शायद ही कोई ऐसा हो, जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील नजरिया रखता हो, उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीबन 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचानकर सबको चौंका दिया था। हमारे यहां ‘नेचर फॉरएवर सोसाइटी’ के संस्थापक दिलावर मोहम्मद खान अकेले ऐसे शख्स हैं, जो बीते डेढ़ दशक से गौरैया को बचाने के अभियान में लगे हैं।

देखा जाए, तो गौरैया को बचाने के आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। ‘हेल्प हाउस स्पैरो’ नाम से समूचे विश्व में चलाए जाने वाले अभियान में हमारी सरकार की ओर से कोई सकरात्मक पहल नहीं की गई। यहां तक कि गौरैया को बचाने की दिशा में सरकार ने न कोई कार्यक्रम बनाया और न ही बाघ, शेर, हाथी की तरह कोई प्रोजेक्ट बनाने पर ही विचार हुआ। देश में पहले ही जीव-जंतुओं-पक्षियों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट है, उसमें गौरैया और शामिल हो जाएगी, तो सरकार पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं। मगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे मेें सब मौन हैैं। ऐसे में, गौरैया आने वाले समय मेे सिर्फ किताबों में रह जाए, तो क्या आश्चर्य!

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


ज्ञानेंद्र रावत पर्यावरण कार्यकर्ता
- ज्ञानेंद्र रावत 
पर्यावरण कार्यकर्ता
साभार : हिन्दुस्तान दैनिक | मुरादाबाद | शनिवार | 24 जून 2017 | कॉलम - नजरिया | पेज संख्या - 12

गुरुवार, 20 मार्च 2014

विश्व गौरैया दिवस



आज विश्व गौरैया दिवस है। विश्व गौरैया दिवस पहली बार वर्ष 2010 ई. में मनाया गया था। यह दिवस प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को पूरी दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है।

जैसा कि आप सबको विदित है की गौरैया आजकल अपने अस्तित्व के लिए हम मनुष्यों और अपने आस पास के वातावरण से काफी जद्दोजहद कर रही है। ऐसे समय में हमें इन पक्षियों के लिए वातावरण को इनके प्रति अनुकूल बनाने में सहायता प्रदान करनी चाहिए। तभी ये हमारे बीच चह चहायेंगे। गौरैया की घटती संख्या के कुछ मुख्य कारण है - भोजन और जल की कमी, घोसलों के लिए उचित स्थानों की कमी तथा तेज़ी से कटते पेड़ - पौधे। गौरैया के बच्चों का भोजन शुरूआती दस - पन्द्रह दिनों में सिर्फ कीड़े - मकोड़े ही होते है। लेकिन आजकल हम लोग खेतों से लेकर अपने गमले के पेड़ - पौधों में भी रासायनिक पदार्थों का उपयोग करते है जिससे ना तो पौधों को कीड़े लगते है और ना ही इस पक्षी का समुचित भोजन पनप पाता है। इसलिए गौरैया समेत दुनिया भर के हजारों पक्षी हमसे रूठ चुके है और शायद वो लगभग विलुप्त हो चुके है या फिर किसी कोने में अपनी अन्तिम सांसे गिन रहे है।

हम मनुष्यों को गौरैया के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही होगा वरना यह भी मॉरीशस के डोडो पक्षी और गिद्ध की तरह पूरी तरह से विलुप्त हो जायेंगे। इसलिए हम सबको मिलकर गौरैया का संरक्षण करना चाहिए।

गौरैया पक्षी के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ चटका लगाएँ :- एक जानकारी गौरेया के बारे में।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

अगर गौरैया गायब हुई तो हम भी नही बचेंगे ..!!

नमस्कार मित्रो ,
सबसे पहले हर्षवर्धन जी को मेरा शुक्रिया इस ब्लॉग में लेखक के रूप में शामिल करने के लिए . हर्षवर्धन जी की गोरैया के लिए ब्लॉग बनाकर चलाई गयी मुहिम स्वागत योग्य है . मैंने इससे पहले अपने ब्लॉग
 मुकेश पाण्डेय चन्दन में पक्षी श्रृंखला    
में भी गौरैया सहित कई भारतीय पक्षियों के बारे में लिखा है . आप ऊपर दी गयी लिंक में पढ़ सकते है .
भारतीय पारिस्थितिकी के लिए गौरैया बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ी है . 
दोस्तों , पहले हमारे हर घर घर में आसानी से फुदकती गौरैया अब मुश्किल से दिखती है । गौरैया का गायब होना एक साथ बहुत से प्रश्न खड़े करता है ।
जैसे - क्यो गौरैया ख़त्म हो रही है ?
आज हम मनुष्यो पर निर्भर इस चिडिया के आवास क्यो ख़त्म हो गए है ?
गौरैया अगर ख़त्म हो गई तो समझो हम बहुत बड़े धर्म संकट में पड़ जायेंगे ! क्योंकि हमारे धर्म गर्न्ठो के अनुसार पीपल और बरगद जैसे पेड़ देवता तुल्य है। हमारे पर्यावरण में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है । पीपल और बरगद ऐसे वृक्ष  है जो कभी सीधे अपने बीजो से नही लगते , इनके बीजो को जब गौरैया खाती है और बीज जब तक उसके पाचन तंत्र से होकर नही गुजरते तब तक उनका अंकुरण नही होता है । इसीलिए अपने देखा होगा की ये ब्रक्ष अधिकांशतः मंदिरों और खंडहरों के नजदीक अधिक उगते है , क्योंकि इनके आस-पास गौरैया का जमावडा होता है । मेरी ये बात निराधार नही है । मोरिशस और मेडागास्कर में पाया जाने वाला एक पेड़ सी० मेजर लुप्त होने कगार पर है , क्योंकि उसे खाकर अपने पाचन तंत्र से गुजरने वाला पक्षी दोदो अब विलुप्त हो चुका है यही हाल हमारे यंहा गौरैया और पीपल का हो सकता है । अगर हम न चेते तो ........? अतः आप सभी से निवेदन है की आप स्वयं और अपने जन पहचान के लोगो को इस बारे में बताये और हमारी संस्कृति और पर्यावरण को एक संकट से बचने में सहयोग करे । मुझे आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ।

आपका अपना- मुकेश पाण्डेय "चंदन"

 

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

गौरैया के नाम


वैसे हमारे देश भारत में गौरैया को कई नामों से पुकारा जाता है। जैसे गौरा और चटक।  लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारी इस घरेलू पक्षी (गौरैया) के और क्या - क्या नाम हैं ? उर्दू में गौरैया को चिड़िया तथा सिंधी भाषा में झिरकी भी कहा जाता है। गौरैया को भोजपुरी में चिरई तथा बुन्देली में चिरैया कहते हैं। इसे भारत के कई राज्यों में भिन्न - भिन्न नामों से पुकारा जाता है जैसे ,,,,,


जम्मू और कश्मीर - चेर 
पंजाब - चिड़ी
पश्चिम बंगाल - चरूई
ओडिशा (उड़ीसा) -  घरचटिया
गुजरात - चकली 
महाराष्ट्र - चिमानी
कर्नाटक - गुब्बाच्ची
आन्ध्र प्रदेश - पिच्चूका
केरल, तमिलनाडु - कूरूवी

   
यहाँ आने के लिए आप सबका सादर धन्यवाद।। 

शनिवार, 27 जुलाई 2013

प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक : डॉ . सालिम अली

चित्र साभार : en.wikipedia.org 
सालिम मोईनुद्दीन अब्दुल अली( डॉ . सालिम अली) का जन्म 12 नवंबर, 1896 में वर्तमान मुंबई के सुलेमान बोहरा मुस्लिम परिवार में हुआ था। सलीम के पिता मोईनुद्दीन की मृत्यु उनके जन्म के 1 साल बाद हो गई थी। बाद में 3 साल की उम्र में सलीम की माँ जीनत उन्निसा भी चल बसी। इनके मामा अमीरुद्दीन और मामी हमीदा बेगम की कोई औलाद ना थी, इसलिए उन्होंने सलीम का पालन - पोषण किया।

सालिम की शुरूआती शिक्षा सैंट जेवियर्स स्कूल, मुंबई में हुई वहाँ से इन्होंने 1913 में मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास की। पक्षियों में इनकी विशेष रुचि देखते हुए डब्ल्यू . एस . मिलार्ड ने सलीम को प्राणी विज्ञान की पढ़ाई करने के लिए कहा। उन्होंने जीव विज्ञान की पढ़ाई सैंट जेवियर्स स्कूल, मुंबई में ही की। सलीम को गणित विषय कभी पसंद नहीं था। इसलिए इस कारण और अस्वस्थता के चलते उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी।

1926 में इनका विवाह तेहमिना से हो गया। पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए सालिम ने 1926 में प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम में गाइड लेक्चरर की नौकरी कर ली। सालिम 1928 में अध्ययन के लिए अवकाश लेकर बर्लिन,(जर्मनी) चले गए। बर्लिन में सालिम ने प्रोफ़ेसर इरविन स्ट्रेरोमैन के निर्देशन में शोध कार्य किया। बर्लिन से लौट कर 1930 में उन्होंने हैदराबाद के निजाम द्वारा आर्थिक सहायता देने पर हैदराबाद में ही पक्षियों का सर्वेक्षण कार्य प्रारंभ किया।

सालिम को पक्षियों के अध्ययन में इन की पत्नी तेहमिना ने इन्हें पूरा सहयोग दिया लेकिन एक ऑपरेशन के दौरान 1939 में तेहमिना की मृत्यु हो गई। तेहमिना की असामयिक मृत्यु से सालिम को गहरा सदमा लगा। लेकिन सलीम ने अपने आप को समझाया और अपने मित्र लोक वान थो के साथ वो पक्षियों के तस्वीरें लेने लगे।

पक्षियों के संरक्षण में विशिष्ट योगदान के लिए महान डॉ . सालिम अली को अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों तथा मानद डॉक्टरेट डिग्री से भी सम्मानित किया गया। कुछ प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जो उन्हें प्राप्त हुए वे हैं : "जे पाल गेटी वाइल्ड लाइफ पुरस्कार", "पौवलोवस्की सैंटनरी मेमोरियल मेडल", नीदरलैंड के प्रिंस बर्नहार्ड का "आर्ट ऑफ़ द गोल्डन आर्क", ब्रिटिश ओरनिथोलोजिकल सोसाइटी का "गोल्ड मेडल"।अपनी इसी ख़ूबी की वजह से इन्हें "बर्डमैन ऑफ़ इंडिया" भी कहा गया।

डॉ . सालिम अली ने पक्षियों पर अपने गहन अध्ययन एवं शोधों को पुस्तक के रूप में समय समय पर प्रस्तुत किया है। उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं : "हैंडबुक ऑफ़ द बर्ड ऑफ़ इंडिया एंड पाकिस्तान" (जो 10 भागों में प्रकाशित हुई है), द फॉल ऑफ़ ए स्पैरो, बुक ऑफ़ इंडियन बर्ड्स, इंडियन हिल बर्ड्स, द बर्ड्स ऑफ़ इस्टर्न हिमालय, द बर्ड्स ऑफ़ सिक्किम, द बर्ड्स ऑफ़ कच्छ (बाद में "द बर्ड्स ऑफ़ गुजरात"), द बर्ड्स ऑफ़ केरल (1953 में पहला संस्करण प्रकाशित और पुराना शीर्षक "द बर्ड्स ऑफ़ त्रावणकोर" था।)

भारत सरकार ने डॉ . सालिम अली को पक्षियों के अध्ययन और संरक्षण में विशिष्ट योगदान के लिए पदम भूषण (1958)पदम विभूषण (1976) से सम्मानित किया है। उन्हें पक्षी विज्ञान में नेशनल रिसर्च प्रोफ़ेसर बनाया गया। डॉ . सालिम अली को 1985 में राज्यसभा की सदस्यता के लिए भी मनोनीत किया गया था।

डॉ . सालिम अली की मृत्यु 27 जुलाई, 1987 में प्रोस्टेट कैंसर से लंबी लड़ाई के बाद 90 वर्ष की उम्र में हो गई।

भारत सरकार द्वारा कोयंबटूर में "सालिम अली सेंटर फॉर ओरनिथोलोजी एंड नेचुरल हिस्ट्री" की स्थापना की गई थी। पांडिचेरी यूनिवर्सिटी में "सालिम अली स्कूल ऑफ़ इकोलोजी एंड नेचुरल हिस्ट्री" की भी स्थापना की गई है। केरल और गोवा में "सालिम अली पक्षी विहार" की स्थापना की गई है।

आज उनकी 26वीं पुण्यतिथि पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। सादर नमन। । 


डॉ . सालिम अली जी के बारे में और जानने के लिए यहाँ विजिट करें :-



बुधवार, 20 मार्च 2013

"विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष।

एक-दो दशक पहले हमारे घर-आंगन में फुदकने वाली गौरैया आज विलुप्ति के कगार पर है। इस नन्हें से परिंदे को बचाने के लिए हम पिछले तीन सालों से प्रत्येक 20 मार्च को "विश्व गौरैया दिवस" के रूप में मनाते आ रहे हैं, ताकि लोग इस नन्हीं सी चिड़िया के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सके। यह दिवस पहली बार वर्ष 2010 में मनाया गया था। भारत में गौरैया की संख्या घटती ही जा रही है। कुछ वर्षों पहले आसानी से दिख जाने वाला यह पक्षी अब तेज़ी से विलुप्त हो रहा है। दिल्ली में तो गौरैया इस कदर दुर्लभ हो गई है कि ढूंढे से भी ये पक्षी नहीं मिलता है इसलिए पिछले वर्ष 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य-पक्षी घोषित कर दिया है।

वैसे गौरैया के इस हालत के जिम्मेदार हम मानव ही है। हमने तरक्की तो बहुत की लेकिन इस नन्हें पक्षी की तरक्की की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि जो दिवस हमें ख़ुशी के रूप में मनाना चाहिए था वो हम आज इस दुःख में मनाते है कि इनका अस्तित्व बचा रहे। सिर्फ़ एक दिन नहीं हमें हर दिन जतन करना होगा गौरैया को बचाने के लिए। गौरैया महज एक पक्षी नहीं है, ये तो हमारे जीवन का अभिन्न अंग भी रहा है। बस इनके लिए हमें थोड़ी मेहनत रोज करनी होगी छत पर किसी खुली छावदार जगह पर कटोरी या किसी मिट्टी के बर्तन में इनके लिए चावल और पीने के लिए साफ़ से बर्तन में पानी रखना होगा। फिर देखिये रूठा दोस्त कैसे वापस आता है। :)

भारतीय डाक विभाग द्वारा 9 जुलाई, 2010 को गौरैया पर जारी किये गए डाक टिकट का चित्र :-

                                                      (चित्र साभार : www.facebook.com)

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

एक जानकारी गौरेया के बारे में।

गौरेया पासेराडेई परिवार की सदस्य है, लेकिन कुछ लोग इसे वीवर फिंच परिवार की सदस्य मानते हैं। इनकी लम्बाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है तथा इनका वजन 25 से 32 ग्राम तक होता है। एक समय में इसके कम से कम तीन बच्चे होते है। गौरेया अधिकतर झुंड में ही रहती है। भोजन तलाशने के लिए गौरेया का एक झुंड अधिकतर दो मील की दूरी तय करते हैं। यह पक्षी कूड़े में भी अपना भोजन ढूंढ़ लेते है।


गौरेया आज संकटग्रस्त पक्षी है जो पूरे विश्व में तेज़ी से दुर्लभ हो रही है। दस-बीस साल पहले तक गौरेया के झुंड सार्वजनिक स्थलों पर भी देखे जा सकते थे। लेकिन खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं, यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफी कम रह गई है। ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी और चेक गणराज्य जैसे देशों में इनकी संख्या जहाँ तेज़ी से गिर रही है, तो नीदरलैंड में तो इन्हें "दुर्लभ प्रजाति" के वर्ग में रखा गया है।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

रेडिएशन का असर।



पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक मोबाइल टावर के रेडिएशन से पक्षियों और मधुमक्खियों पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। इसलिए इस मंत्रालय ने टेलिकॉम मिनिस्ट्री को एक सुझाव भेजा है। जिसमे एक किमी के दायरे में दूसरा टावर ना लगाने की अनुमति देने को कहा गया है और साथ ही साथ टावरों की लोकेशन व इससे निकलने वाले रेडिएशन की जानकारी सार्वजनिक करने को भी कहा गया है,जिससे इनका रिकॉर्ड रखा जा  सके।
 इन पक्षियों की प्रजातियों पर है सबसे ज्यादा खतरा :- गौरेया, मैना, तोता, कौआ, उच्च हिमालीय प्रवासी पक्षी आदि।


मोबाइल टावर के रेडिएशन से मधुमक्खियों  में कॉलोनी कोलेप्स डिसऑर्डर पैदा हो जाता है। इस डिसऑर्डर में मधुमक्खिया छत्तों का रास्ता भूल जाती है।  


रेडिएशन से वन्य जीवों के  हार्मोनल बैलेंस पर हानिकारक असर होता है जिन पक्षियों में मैग्नेटिक सेंस होता है और जब ये पक्षी विध्दुत मैग्नेटिक तरंगों के इलाक़े में आते हैं तो  इन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। तरंगो की ओवर लेपिंग के कारण पक्षी अपने प्रवास का रास्ता  भटक जाते है। वैज्ञानिको के मुताबिक मोबाइल टावर के आसपास पक्षी बहुत ही कम मिलते हैं। वैज्ञानिको के अनुसार रेडिएशन से पशु-पक्षियों की प्रजनन शक्ति के साथ-साथ इनके नर्वस सिस्टम पर भी बहुत विपरीत असर होता है।

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य :-

(1) भारत में  4.4 लाख से ज्यादा मोबाइल टावर हैं।
(2) भारत में पक्षियों की  1301 प्रजातियाँ हैं,जिनमे से 42 लुफ्त होने की कगार पर हैं।
(3) भारत में लगभग 100 से ज्यादा प्रवासी पक्षी आते हैं।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        

रविवार, 5 अगस्त 2012

गौरेया को बचाओ !

                                     
ये जो पक्षी  है जिसका चित्र आप इस ब्लॉग में देख रहे है! इसका नाम  गौरेया(SPARROW) है! वर्तमान समय में इसकी स्थिति ये हो गयीं है की ये पक्षी अब शहरो  से बिलकुल ही गायब हो चूका है और  अब गौरेया  केवल गावो में ही दिखाई देती है! लेकिन ये सच नहीं है गौरेया शहरो से बिलकुल गायब  नहीं हुई  है ये अभी भी यहाँ पर दिखाई दे जाती है!आय दिन ये किसी की छतो पर , बिजली की तारो पर और कभी-कभी घास के मैदानों पर भी  दिख जाती है! इसे बचाने के लिए भारत सरकार को आगे आना चाहिए जैसे वो बाघों(Tigers) और शेरो(Lions) को बचाने के लिए आगे आयी  है, भारत सरकार न सही राज्य सरकारों को तो गौरेया बचाने के लिए तो आगे आना ही चाहिए!!! आप सब ये ना  सोचे की सरकार ही केवल इनका संरक्षण करके इन्हें बचा सकती है हम लोग यानि आम लोग भी इनको बचाने में सहायता कर सकते है पर कैसे?  सबसे पहले आप अपनी छत या छज्जे पर एक अच्छी-सी  साफ-सुथरी जगह ढूंढे ऐसी जगह खुली ही होगी ऐसा मेरा मानना है  और वहां पर छाव हुई तो वो तो सोने पर सुहागा-होगी क्योंकी इन्हें छावदार जगह पसंद है! फिर आप वहां पर एक मध्यम आकार के दीये में चावल के छोटे-छोटे दाने करके रख दे ( ध्यान रहे चावल के दाने बड़े ना हूँ) और उसके बाद एक मिटटी के बर्तन में इनके पीने  योग्य पानी   रख दे! बस इतना करने से ही हम लोग इनकी बहुत मदद कर सकते है!मेरी बात सुनने के लिए धन्यवाद!

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

गौरेया प्यारा नाम

गौरेया कितना प्यारा नाम है । शायद तभी हमारे देश में एक जिले का नाम ओरेया है । माफ़ करिए गा मजाक कर रहा था । गौरेया एक ऐसी चिड़िया है जिसका अस्तित्व वर्तमान समय में बहुत खतरे में है । इसलिए हमे अब नींद से जागना होगा  और इनको बचाने के लिये प्रयत्नशील होना होगा ।इसलिए मेरी बुद्धिमान  लोगो से विनती है की वो इनको बचाने के लिए आगे आये । धन्यवाद ।

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